Sadhana Shahi

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भारत मांँ के वीर सपूत (कहानी) प्रतियोगिता हेतु -13-Feb-2024

दिनांक- 13.0 2 .2024 दिवस- मंगलवार प्रदत्त विषय-भारत मांँ के वीर सपूत प्रतियोगिता हेतु

इतिहास ही है जो भूतकाल में किए गए कार्यों का क्रमबद्ध वर्णन करता है। किस प्रकार मानव का उत्थान और पतन हुआ इसके बारे में बताता है तथा भविष्य के प्रति हमें सचेत करता है।

इतिहास जानने के अनेकानेक आधार हैं । इसी आधार में एक पत्र है गुमनामी में खोए हुए भारत मांँ के वरद पुत्र शहीद राजनारायण सिंह द्वारा लिखा गया 28 पन्ने का पत्र। जिसे उन्होंने अंग्रेजों द्वारा दिए गए काल कोठरी में लिखा था।

राज नारायण का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में माता तुलसी देवी तथा पिता बलदेव मिश्रा के यहाँ लखीमपुर खीरी के भीखमपुर गांँव में बसंत पंचमी को 1920 में हुआ था।

उनके माता-पिता दोनों ही बड़े शालीन थे। जिसका प्रभाव राजनारायण के व्यक्तित्व पर भी पड़ा। उन्होंने अपने पत्र के माध्यम से देशवासियों को अपनी माता जी के बहादुरी के किस्से सुनाते हुए बताया कि उनकी मांँ इतनी बहादुर थीं कि अनेकानेक बार उन्होंने डाकुओं को लाठियों से पीट- पीटकर भगा दिया।

राज नारायण के हिम्मत, साहस, बहादुरी को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने अभिमन्यु की भांँति ही मांँ के गर्भ से ही इन गुणों को प्राप्त कर लिया था।

उन्हें अपने घर परिवार की कोई सुध न थी। उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था यथाशीघ्र अंग्रेज़ी शासन को उखाड़ फेंकना। उनका कहना था-" हम तो अपने देश के सैनिक हैं, संघर्ष ही हमारा जीवन है"। उन्होंने अपने पत्र में एक बार लिखा था-'' जब तक जान में जान है ब्रिटिश हुकूमत की नींव की एक-एक ईंट उखाड़ फेंकेंगे।"

राज नारायण का बचपन गरीबी तथा संघर्ष में बीता। बाल्यावस्था में ही इनकी मांँ इन्हें अकेले छोड़कर स्वर्ग सिधार गईं। उनकी परवरिश उनकी बहन रमा देवी ने किया। ये वो दिलेर क्रांतिकारी थे जो छात्र जीवन से ही स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ गए थे। जिसके लिए इन्हें इनके शिक्षकों से भी ताड़ना मिली किंतु ये अपने पथ से टस से मस नहीं हुए।

एक बार कक्षा में वाद-विवाद प्रतियोगिता हो रही थी। उन्होंने अपने विचारों से एक छात्र को हरा दिया। चूँकि हारा हुआ छात्र धनी परिवार का था अतः उसने राज नारायण को धमकी देते हुए कहा कि, इस धृष्टता के लिए मै तुम्हें बुरी तरह पिटवा सकता हूँ। उसके मुंँह से यह शब्द निकला ही था कि राज नारायण ने आव देखा न ताव उसे एक तमाचा जड़ के दिया। और कहा, हम बाद में नहीं तुम्हें अभी पीट सकते हैं। अपने इसी खुद्दारी की वज़ह से वो किसी भी स्कूल में लंबे समय तक नहीं टिक सके।

जब ये कक्षा सातवीं में पढ़ रहे थे तभी उनका विवाह सन् 1931 में कर दिया गया। उसी अवस्था से ये स्वदेशी का प्रतीक खद्दर धारण करने लगे थे। उनके बड़े भाई बाबूराम मिश्र ज़िले के प्रमुख नेता थे।

एक बार राज नारायण को राजद्रोहात्मक भाषण देने के कारण एक वर्ष की कठोर सज़ा झेलनी पड़ी। उसके पश्चात वो कांग्रेस के सदस्य बन गए और किसानों के दुख को दूर करने में तत्पर हो गए।

1937 में सीतापुर में नवयुवक संघ में भाग लिये। जहांँ पर 1940 में उनका संपर्क वाम पार्टी से हुआ।यह वह पार्टी थी जो समाज को बदलकर उसमें अधिक आर्थिक और जातीय समानता लाना चाहती थी। इस विचारधारा में समाज के उन लोगों के लिए सहानुभूति जताई जाती थी जो किसी भी कारण से अन्य लोगों की तुलना में पिछड़ गए हों या शक्तिहीन हों।

जब महात्मा गांधी ने 8 अगस्त सन् 1942 में "करो या मरो" का नारा दिये तब समस्त भारतवासी एकजुट होकर इस स्वतंत्रता के यज्ञ में अपनी आहुति देने के लिए खड़े हुए। वीर राज नारायण तो मानो पहले से इस पंक्ति में सबसे आगे लगने के लिए तैयार बैठे हों।

भीखमपुर की धरती तो शेर पैदा करने वाली धरती थी। देखते ही देखते सैकड़ो युवक उनके साथ खड़े हो गए।

अपने साथियों के साथ मिलकर वे अंग्रेज़ों के पिठ्ठुओं का हथियार छीनने की योजना बनाए और 14 अगस्त 1942 को अपने दो साथियों के साथ महमूदाबाद के जिलेदार की बंदूक छीनने के लिए बढ़े तो जिलेदार ने बंदूक की नली उनके साथी की ओर तान दी। गोरे की ऐसी धृष्टता देखकर राजनारायण के ख़ून में उबाल आया और उन्होंने गोली चला दी जिससे अंग्रेज़ जिलेदार वहीं ढेर हो गया। इसके पश्चात राजनारायण पिस्टल को चूमते हुए वहांँ से फरार हो गए।

इस घटना के पश्चात अंग्रेज़ों ने पूरे गांँव पर धावा बोल दिया। पूरे गांँव में क्रूरता पूर्ण व्यवहार करने लगे। उनका घर गिरा दिया गया, घर के सारे सामान को तोड़-फोड़ दिया गया, जला दिया गया।किंतु कोई भी राजनारायण का पता बताने को तैयार नहीं था। कई लोगों पर मुकदमा चला लंबी सज़ा हुई लेकिन कोई मुँह नहीं खोला। आख़िर खोलता भी कैसे पूरा गांँव, राजनारायण का पूरा परिवार इंकलाबी सरिता में नहाया हुआ था। उनके हाथों में दास्ताँ की रेखाएंँ तो थीं ही नहीं फिर भला वो गुलाम बनकर कैसे जीते। उनके पांँव में चक्र था वो चलते रहे, चलते रहे और तब तक चलते रहे जब तक की लक्ष्य को नहीं पा लिए। राजनारायण को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए अनेकानेक पुरस्कारों की घोषणा हुई।

अपने एक पत्र में राजनारायण अपने पत्नी के विषय में लिखते हैं कि, "जब वो अपने घर से निकले तब उनकी पत्नी ने उन्हें रोचना लगाया और कहा आप कभी भी पीठ मत दिखाईएगा। आप शहीद हो जाएंँगे यह मेरा सौभाग्य होगा"

आगे वो लिखते हैं देश की क्रांति तब तक सफ़ल नहीं होगी जब तक हमारे देश की पार्टी चाकू की नोक की तरह नहीं बनेगी। मस्त मुसाफ़िर की तरह वो आगे बढ़ते रहे, बढ़ते रहे और बस बढ़ते ही रहे। 1943 में वो काशी, हरिद्वार, ऋषिकेश आदि स्थानों पर घूमते रहे। उनकी आर्थिक स्थिति अत्यंत दयनीय थी।

अब उनके पास पैसों का कोई जरिया नहीं था अतः उन्होंने सोचा चलो नौकरी ही कर लेंगे और लखनऊ से 14 अक्टूबर 1943 को मेरठ पहुंँचे। वहांँ से वो गांँधी आश्रम गए, वहांँ पर भाई राजाराम कर्ता-धर्ता थे।

जब राजनारायण ने उनसे अपनी समस्या की चर्चा किया तब वो उन्हें कोरा सा उत्तर देकर उनकी मदद करने से इंकार कर दिए। और कहे गांधी आश्रम में क्रांतिकारियों हेतु कोई स्थान नहीं है। हमें कोई क्रांति नहीं करनी है।

उसके पश्चात वो अपने एक मित्र के यहांँ गए जिसे उन्होंने अपना सही परिचय दे दिया और पुलिस के चंगुल में फँस गए। उसके पश्चात उन्हें तमाम तरह की अमानवीय प्रतारणाएँ दी गईं।उनकी पीठ पर बर्फ़ की सिल्लियांँ बांँधी गईं। अंततः वो अपने क्रांतिकारी कार्यों को स्वीकार कर लिए। जिसके फल स्वरुप उनके ऊपर मुकदमा चलाया गया और 27 जून 1944 को उन्हें फांँसी की सज़ा सुनाई गई।

ऐसा कहा जाता है फांँसी की सज़ा सुनने के पश्चात उन्हें किसी भी प्रकार का दुख नहीं था। वरन् जेल में उनका वज़न 6 पाउंड और बढ़ गया था।

जेल के सलाखों से उनकी जो भावनाएंँ निकली वैभावनाएंँ हमारे अंदर देश प्रेम के ऊर्जा का एक नई संचार करती हैं। अत: आज जब पूरा देश जाति- धर्म, मज़हब,भाषा प्रांत, ऊंँच- नीच इत्यादि के भेद-भाव में लिप्त हैं ऐसे में आवश्यकता है उनके पत्रों से राष्ट्र प्रेम की प्रेरणा लेने की।

शहीद राजनारायण मिश्रा को 9 दिसम्बर 1944 सुबह चार बजे फांसी दी गई थी। शहीद राजनारायण मिश्रा के बारे में लोग बताते हैं, "जब उनको फांँसी दी जा रही थी तब उनसे उनकी अंतिम इच्छा के बारे में पूछा गया। उस समय उन्होंने मात्र दो इच्छाएंँ ज़ाहिर किया। एक वह खुद अपनी फांँसी का फंदा अपने गले में लगाएंँगे, दूसरी इच्छा यह थी कि उनके पार्थिव शरीर को उनके क्रांतिकारियों साथियों को सौंपा जाए।

आजादी की पौध को सिंचन करते भारत मांँ के गीत गाते भारत मांँ का वीर सपूत देश की आज़ादी के लिए अपने प्राणों की बाज़ी लगाए उनका बलिदान जायख ना जाए उनके बलिदान को कोई प्रतिक्रियावादी अपने निजी स्वार्थ के लिए प्रयोग में न ला सके।

ब्रिटिश हुकूमत ने 9 दिसंबर 1944 को देश का आख़िरी फांँसी दिया। उनके हाथ बंँधे थे, पैरों में लोहे की ज़ंजीरें थीं, सर पर कफ़न बांँधे लखनऊ की जेल में 24 वर्ष के ये युवा वीर माँ भारती के सपूत आनंदोत्सव मनाते हुए चले जा रहे थे, और नारे लगाते जा रहे थे, लगाते जा रहे थे और देश के नारे लगाते हुए जाऊंँगा सभी को जगाते हुए जाऊंँगा नमस्कार, नमस्कार और नमस्कार। कहता जा रहे थे।

आज भी उनके गाँव में उनके परिजन और ग्रामवासी अपने इस भारत मांँ के वीर सपूत का बसंत पंचमी को धूम-धाम से जन्मोत्सव मानते हैं और भाव- विभोर होते हैं।

इनके जन्म दिवस के शुभ अवसर पर उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण कर इन्हें नमन किया जाता है। कई गोष्ठी का आयोजन किया जाता है।

साधना शाही, वाराणसी

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5 Comments

Shnaya

17-Feb-2024 10:43 PM

Nice

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Mohammed urooj khan

15-Feb-2024 01:09 AM

👌🏾👌🏾

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Sushi saxena

14-Feb-2024 06:17 PM

Very nice

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